भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (INC) को अक्सर "प्रो-ब्रिटिश" होने का आरोप लगाया जाता रहा है, खासकर जब इसके नेताओं ने ब्रिटिश सरकार के साथ विभिन्न समझौतों और संवादों की दिशा में कदम उठाए थे। यह आरोप भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के विभिन्न चरणों में विभिन्न दृष्टिकोणों के कारण उठे थे, जब कांग्रेस ने ब्रिटिश सरकार के साथ सहयोग किया था या कुछ समझौतों पर हस्ताक्षर किए थे। हालांकि, कांग्रेस का लक्ष्य हमेशा भारतीयों के अधिकारों और स्वराज की प्राप्ति था, लेकिन इसके रास्ते में कई बार विवाद पैदा हुए थे, जिससे यह आरोप लगाया गया कि कांग्रेस ब्रिटिश साम्राज्य के प्रति नर्म रुख अपनाती है। आइए जानते हैं कि कांग्रेस पर यह आरोप क्यों लगाया गया और इसके ऐतिहासिक संदर्भ को समझते हैं।
1. कांग्रेस का प्रारंभिक दृष्टिकोण और ब्रिटिश साम्राज्य के प्रति सहानुभूति
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का गठन 1885 में हुआ था, और इसका प्रारंभिक उद्देश्य भारतीयों के लिए ब्रिटिश साम्राज्य में अधिक राजनीतिक अधिकार और सुधार प्राप्त करना था। उस समय कांग्रेस के नेता ए.ओ. ह्यूम, दीनबंधु एंड्रयूज, और अन्य नेताओं का मानना था कि भारतीयों को धीरे-धीरे ब्रिटिश सरकार में अधिक प्रतिनिधित्व मिल सकता है और उन्हें स्वायत्तता प्राप्त हो सकती है।
इसके तहत, कांग्रेस ने कभी ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ खुलकर संघर्ष नहीं किया। इसके बजाय, कांग्रेस ने ब्रिटिश सरकार से सुधार की मांग की और धीरे-धीरे भारतीयों को अधिक अधिकार देने की कोशिश की। यही कारण था कि शुरुआती कांग्रेस नेतृत्व को ब्रिटिश सरकार के प्रति सहानुभूति दिखाने या "प्रो-ब्रिटिश" माना जाता था।
2. कांग्रेस और ब्रिटिश सरकार के बीच समझौते
कांग्रेस के "प्रो-ब्रिटिश" होने का आरोप मुख्य रूप से तब उठता है, जब कांग्रेस ने ब्रिटिश सरकार के साथ समझौते किए थे। ये समझौते कुछ समय के लिए कांग्रेस की नीतियों के प्रति आलोचना का कारण बने:
गांधी-इरविन समझौता (1931): यह समझौता गांधीजी और ब्रिटिश वायसराय लॉर्ड इरविन के बीच हुआ था। इसमें गांधीजी ने ब्रिटिश सरकार से कुछ समझौतों पर सहमति जताई, जैसे कि नमक कानून का विरोध और अन्य क़ानूनी सुधार। हालांकि यह समझौता एक कदम आगे बढ़ने की दिशा में था, लेकिन इससे कांग्रेस को "प्रो-ब्रिटिश" की आलोचना का सामना करना पड़ा क्योंकि इसमें पूर्ण स्वतंत्रता की मांग नहीं की गई थी।
1919 का रॉलट एक्ट और इसके बाद कांग्रेस की प्रतिक्रिया: ब्रिटिश सरकार ने रॉलट एक्ट लागू किया, जो भारतीयों की स्वतंत्रता पर गंभीर अंकुश था। इसके खिलाफ महात्मा गांधी ने आंदोलन किया, लेकिन कुछ समय तक कांग्रेस ने भी ब्रिटिश सरकार से संवाद बनाए रखा। इस दौरान कांग्रेस की स्थिति कभी-कभी आलोचनाओं का शिकार हो गई कि वह ब्रिटिश शासन से संघर्ष करने में गंभीर नहीं थी।
3. स्वतंत्रता संग्राम में बदलाव और आलोचना
ब्रिटिश सरकार के साथ समझौतों के बावजूद, कांग्रेस ने समय के साथ स्वतंत्रता संग्राम की दिशा पूरी तरह से बदल दी। महात्मा गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस ने ब्रिटिश सरकार के खिलाफ असहमति और अहिंसक प्रतिरोध की नीति अपनाई। नमक सत्याग्रह (1930), भारत छोड़ो आंदोलन (1942) और अन्य बड़े आंदोलनों ने यह सिद्ध कर दिया कि कांग्रेस अब ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ एक निर्णायक संघर्ष कर रही थी।
गांधीजी के नेतृत्व में कांग्रेस ने "प्रो-ब्रिटिश" के आरोपों का खंडन किया और स्वराज की मांग की। गांधीजी ने ब्रिटिश सरकार के खिलाफ अहिंसक प्रतिरोध का आह्वान किया, जिससे कांग्रेस ने पूरी तरह से ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ संघर्ष की दिशा में कदम बढ़ाए।
4. कांग्रेस की "प्रो-ब्रिटिश" होने की आलोचना
कांग्रेस पर "प्रो-ब्रिटिश" होने का आरोप कभी-कभी भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के कुछ विघटनकारी और असहमति आंदोलनों के कारण भी लगाया गया। कुछ आलोचकों का मानना था कि कांग्रेस ने कई अवसरों पर ब्रिटिश सरकार से समझौता किया और कुछ पहलुओं में ब्रिटिश साम्राज्य से सहयोग किया, जैसे:
1935 का भारत सरकार अधिनियम: इस अधिनियम के तहत, भारतीयों को कुछ स्वायत्तता दी गई, लेकिन ब्रिटिश सरकार का प्रभुत्व बरकरार रहा। कांग्रेस ने इसे आंशिक रूप से स्वीकार किया, लेकिन इसके बाद इसे आलोचना का सामना करना पड़ा, क्योंकि यह पूर्ण स्वराज की दिशा में एक कदम और नहीं था।
गांधी-इरविन समझौता: यह समझौता भी एक कारण था, जिसके कारण कांग्रेस को "प्रो-ब्रिटिश" के रूप में आलोचना का सामना करना पड़ा। गांधीजी ने ब्रिटिश सरकार के साथ कुछ समझौते किए थे, जिससे कांग्रेस के स्वतंत्रता संग्राम के प्रति दृष्टिकोण को लेकर सवाल उठे थे।
5. निष्कर्ष
कांग्रेस पर "प्रो-ब्रिटिश" होने का आरोप कुछ हद तक सही हो सकता है, लेकिन यह समझना महत्वपूर्ण है कि कांग्रेस का वास्तविक उद्देश्य हमेशा भारतीयों के अधिकारों की रक्षा और स्वतंत्रता की प्राप्ति था। कांग्रेस के विभिन्न नेताओं ने समय-समय पर ब्रिटिश सरकार से संवाद और समझौते किए, लेकिन अंततः यह पूरी तरह से स्पष्ट हो गया कि कांग्रेस ने ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ निर्णायक संघर्ष किया और भारत को स्वतंत्रता दिलाई।
कांग्रेस की नीतियों और रणनीतियों में बदलाव के साथ ही यह "प्रो-ब्रिटिश" होने का आरोप कमजोर पड़ा और भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के मुख्य मोर्चे पर पूरी तरह से ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ संघर्ष शुरू हुआ।
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