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गुरुवार, 26 दिसंबर 2024

मनुस्मृति और कथित अंबेडकरवादियों के झूठ का पर्दाफाश

हाल ही में एक वीडियो क्लिप वायरल हो रही है, जिसमें इंडिया टीवी के एक डिबेट शो में मीनाक्षी जोशी और प्रियंका भारती के बीच एक गर्म बहस देखने को मिली। इस शो में प्रियंका भारती ने मनुस्मृति की प्रतियों को फाड़कर फेंक दिया, जिसके बाद सोशल मीडिया पर इस पर जमकर विवाद हुआ। प्रियंका ने अपनी बातों में यह भी कहा कि वह चंद्रगुप्त मौर्य की वंशज हैं और मीनाक्षी जोशी को थप्पड़ मार सकती हैं। लेकिन इस बहस ने एक महत्वपूर्ण सवाल उठाया है कि क्या हम भारतीय इतिहास और धर्मग्रंथों को सही तरीके से समझ रहे हैं, खासकर जब बात मनुस्मृति की हो?

मनुस्मृति और चंद्रगुप्त मौर्य का संबंध

प्रियंका भारती ने मनुस्मृति का विरोध करते हुए उसकी प्रतियां फाड़ दी थीं, लेकिन क्या उन्होंने कभी यह सोचा कि जिस चंद्रगुप्त मौर्य के वंशज होने का दावा वे करती हैं, वह भी मनुस्मृति के अनुसार ही शासन चला रहे थे? चंद्रगुप्त मौर्य के समय में, ब्राह्मण विष्णु गुप्त चाणक्य ने अर्थशास्त्र की रचना की थी, और उसमें जो न्याय पद्धति वर्णित है, वह पूरी तरह से मनुस्मृति पर आधारित है। यानी, चंद्रगुप्त मौर्य का शासन वास्तव में मनुस्मृति के सिद्धांतों के अनुसार ही था।

इस तथ्य से यह स्पष्ट होता है कि चंद्रगुप्त मौर्य के शासन का मॉडल, जो प्रियंका भारती जैसे लोग आज़ादी और समानता के प्रतीक मानते हैं, वह दरअसल मनुस्मृति से प्रेरित था। ऐसे में क्या यह विरोध उचित था?

डॉ. अंबेडकर और चंद्रगुप्त मौर्य

यहां एक और दिलचस्प बात है, जिसे कई लोग नजरअंदाज करते हैं। डॉ. बी. आर. अंबेडकर, जिन्हें दलितों के अधिकारों के लिए एक महान नेता माना जाता है, उन्होंने चंद्रगुप्त मौर्य के शासन को भारतीय इतिहास का सबसे बेहतरीन शासन माना था। डॉ. अंबेडकर के मुताबिक, मौर्य साम्राज्य का शासन न्यायपूर्ण था और उसमें सभी वर्गों के लिए समानता थी। फिर भी, अंबेडकर के समर्थक आज चंद्रगुप्त मौर्य और उनके सलाहकार चाणक्य का विरोध क्यों करते हैं?

जब मैंने एक दलित चिंतक से इस सवाल का जवाब पूछा, तो उन्होंने चाणक्य को काल्पनिक किरदार मानने की बात कही। लेकिन यह बात पूरी तरह से गलत है। जैन और बौद्ध ग्रंथों, साथ ही यूरोपीय इतिहासकारों ने चाणक्य का उल्लेख किया है। चाणक्य ने एक ब्राह्मण होते हुए भी शूद्र जाति से आने वाले चंद्रगुप्त मौर्य को राजा बनाया, और यह कदम उनके समय के जाति आधारित भेदभाव को चुनौती देने वाला था।

अंबेडकरवाद और चाणक्य का विरोध

यहां पर एक बड़ी असहमति और पाखंड का पर्दाफाश होता है। चाणक्य का योगदान इस बात को नकारता है कि सिर्फ जन्म के आधार पर किसी को नीच या उच्च माना जाए। यह जातिवाद के खिलाफ था, लेकिन फिर भी कुछ दलित चिंतक आज इसे नकारते हैं और चाणक्य को काल्पनिक बता कर अपनी राजनीति चमकाते हैं।

आज के कथित अंबेडकरवादी यह भूल जाते हैं कि चाणक्य ने 2500 साल पहले उस समय की सामाजिक व्यवस्था को चुनौती दी थी, जब ब्राह्मणों का शासन था, और एक शूद्र को राज सिंहासन पर बैठाने का साहस किया था। ऐसे में, चाणक्य के योगदान को नकारना उन लोगों के लिए एक बड़ी कमजोरी बन गई है जो जातिवाद का विरोध करने का दावा करते हैं।

मनुस्मृति और बाबा साहब का संविधान

लेख में एक और महत्वपूर्ण बिंदु पर भी चर्चा की गई है। बाबा साहब डॉ. अंबेडकर ने भारतीय संविधान में जातिवाद को समाप्त करने की कोशिश की थी। उनके संविधान में जाति प्रमाण पत्र को स्थायी किया गया है, जिससे कोई व्यक्ति अपनी जाति नहीं बदल सकता। वहीं, मनुस्मृति में शूद्रों को तपस्या के जरिए ब्राह्मण बनने का अवसर मिलता है, जो एक तरह से जातिवाद को स्थिर करने की दिशा में था। यह असहमति अंबेडकर और मनुस्मृति के दृष्टिकोण में एक बड़ी खाई को दर्शाती है।

निष्कर्ष

इस पूरे मुद्दे पर हमें यह समझने की जरूरत है कि भारतीय धर्मग्रंथों और ऐतिहासिक घटनाओं को सही परिप्रेक्ष्य में देखना चाहिए। प्रियंका भारती जैसे लोग अपनी निजी राजनीतिक स्वार्थों के लिए भारतीय समाज में भेदभाव पैदा करने की कोशिश कर रहे हैं। अगर हम भारतीय इतिहास और संस्कृति को सही ढंग से समझें, तो हमें यह समझ में आएगा कि मनुस्मृति और चाणक्य के सिद्धांतों ने भारतीय समाज की जड़ों में गहरे बदलाव की प्रक्रिया शुरू की थी, जिसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।

इसलिए, हमें भारतीय समाज में एकता और समानता की भावना को बढ़ावा देना चाहिए और जातिवाद, धर्मग्रंथों और ऐतिहासिक घटनाओं को लेकर अपनी सोच को संतुलित और निष्पक्ष रखना चाहिए।

दलितों को शिक्षा से वंचित रखने का मिथक: ब्रिटिश रिपोर्टों से खुलासा

 दलितों को शिक्षा से वंचित रखने का कथित अंबेडकरवादियों का झूठ: तथ्यों के साथ पर्दाफाश



भारत में शिक्षा के इतिहास को लेकर बहुत सी गलतफहमियाँ और आरोप लगाए गए हैं। विशेष रूप से दलितों को शिक्षा से वंचित रखने के आरोप अक्सर सुने जाते हैं। कुछ कथित अंबेडकरवादी इस तरह के दावे करते हैं, लेकिन क्या ये आरोप सही हैं? क्या ब्रिटिश शासन के दौरान भारत में शिक्षा की स्थिति वाकई इतनी दयनीय थी, जैसा कि कहा जाता है? आइए, ब्रिटिश अधिकारियों द्वारा की गई रिपोर्टों और तथ्यों के आधार पर इस मिथक का पर्दाफाश करें।

ब्रिटिश शासन के दौरान शिक्षा की स्थिति

सन 1800 के बाद, जब ब्रिटिश शासन ने भारतीय उपमहाद्वीप के विभिन्न हिस्सों पर अपना नियंत्रण स्थापित किया, तो उन्होंने भारतीय समाज में शिक्षा की स्थिति पर एक विस्तृत सर्वेक्षण किया। लंदन से प्राप्त निर्देशों के तहत, हर जिले का कलेक्टर व्यक्तिगत रूप से गांव-गांव जाकर शिक्षा का आंकलन करता था और जातिवार विवरण इकट्ठा करता था। इसके परिणामस्वरूप कई रिपोर्टें सामने आईं, जो आज भी भारतीय शिक्षा के इतिहास को समझने में सहायक हैं।

1. साक्षरता दर: 97 प्रतिशत

ब्रिटिश अधिकारियों की रिपोर्ट के अनुसार, 1812 तक भारत में साक्षरता दर लगभग 97 प्रतिशत थी। यह आंकड़ा बहुत ही चौंकाने वाला है, क्योंकि यह दर्शाता है कि भारत में उस समय लगभग हर व्यक्ति पढ़-लिख सकता था। सवाल यह है कि अगर दलितों को शिक्षा से वंचित रखा जाता, तो क्या इतनी बड़ी संख्या में भारतीय साक्षर हो सकते थे?

2. सभी जातियों के लिए स्कूल

ब्रिटिश अधिकारियों के मुताबिक, भारत के हर गांव में एक स्कूल था और इनमें सभी जातियों के बच्चे पढ़ाई करते थे। शूद्र जाति के लोग भी इन स्कूलों में पढ़ाते थे। रिपोर्टों से यह भी पता चलता है कि उन दिनों में अछूत जातियों के लोग भी शिक्षकों के रूप में काम कर रहे थे। इससे यह स्पष्ट होता है कि शिक्षा में जातिवाद की दीवारें बहुत कम थीं।

3. गुरुकुलों का योगदान

हालांकि ब्रिटिश अधिकारियों ने अपनी रिपोर्टों में गुरुकुलों (पारंपरिक शिक्षा संस्थानों) का जिक्र नहीं किया, लेकिन फिर भी यह तथ्य सामने आता है कि मद्रास प्रेसीडेंसी में इंग्लैंड से तीन गुना अधिक स्कूल थे। अगर ब्रिटिश रिपोर्ट में चर्च स्कूलों को भी शामिल किया गया, जो सप्ताह में केवल एक दिन ही चलाए जाते थे, तो भारतीय स्कूलों की संख्या कहीं अधिक थी। इससे यह स्पष्ट होता है कि भारत में शिक्षा का प्रसार बहुत व्यापक था।

4. शहरी स्कूलों में शिक्षा

बड़े शहरों में ऐसे कई स्कूल थे, जहां बच्चों को पढ़ाई के अलावा अंकगणित और अन्य विषयों की शिक्षा भी दी जाती थी। यह इंगित करता है कि शहरी क्षेत्रों में शिक्षा का स्तर उच्च था और वहां बच्चों को विविध प्रकार की शिक्षा प्राप्त हो रही थी।

5. शिक्षकों का वेतन

ब्रिटिश रिपोर्टों में यह भी उल्लेख किया गया है कि छात्रों के माता-पिता अपने बच्चों के शिक्षकों को उनके काम के अनुसार वेतन देते थे। यह वेतन अनाज से लेकर एक रुपये तक था। यह दर्शाता है कि शिक्षा को एक सम्मानजनक पेशा माना जाता था और शिक्षक को उचित सम्मान दिया जाता था।

गांधीजी का राउंड टेबल कॉन्फ्रेंस में आरोप

1929 में ब्रिटेन में हुई राउंड टेबल कॉन्फ्रेंस में महात्मा गांधी ने ब्रिटिश शासन पर आरोप लगाया था कि उन्होंने भारतीय शिक्षा व्यवस्था को नष्ट कर दिया। उस समय एक अंग्रेजी विद्वान फिलिप हाटडाग ने गांधीजी से इन आरोपों के समर्थन में सबूत मांगा। गांधीजी के निर्देश पर भारतीय शिक्षा की इन रिपोर्टों को फिलिप हाटडाग को भेजा गया, जो ब्रिटिश शासन की शिक्षा नीति के बारे में सटीक जानकारी प्रदान करती थीं। इन रिपोर्टों को बाद में 1939 में कलकत्ता विश्वविद्यालय ने दोबारा प्रकाशित किया और गांधीवादी धरमपाल ने इनका गहन अध्ययन कर एक पुस्तक भी लिखी, जिसमें भारतीय शिक्षा व्यवस्था के बारे में विस्तृत जानकारी दी गई।

निष्कर्ष

ब्रिटिश शासन के दौरान भारतीय शिक्षा की स्थिति उतनी खराब नहीं थी, जितना कि हमें बताया गया है। भारतीय समाज में शिक्षा का प्रसार व्यापक था, और यह सब जातियों के लिए उपलब्ध था। तथ्यों से यह स्पष्ट होता है कि दलितों को शिक्षा से वंचित रखने का आरोप पूरी तरह से झूठा है। इन रिपोर्टों के आधार पर यह साबित होता है कि भारतीय समाज में उस समय शिक्षा का स्तर बहुत उच्च था और हर वर्ग के लोगों को शिक्षा प्राप्त करने के समान अवसर मिल रहे थे।

इसलिए, हमें इन ऐतिहासिक तथ्यों को समझना चाहिए और जो झूठी धारणाएं बनाई गई हैं, उन्हें नकारते हुए भारतीय समाज की शिक्षा के इतिहास को सही तरीके से पेश करना चाहिए।