सोमवार, 13 जनवरी 2025

“अब्दुल अली, एक-एक करके करो, नहीं तो वो मर जाएगी, वो सिर्फ 14 साल की है।” - लज्जा!

बांग्लादेश में धार्मिक उत्पीड़न का कच्चा सच: एक दिल दहला देने वाली घटना: धार्मिक उत्पीड़न के खिलाफ दुनिया भर में आवाज उठाई जाती है, लेकिन कभी-कभी यह घटनाएँ इतनी भयावह होती हैं कि वे मानवता के सामने गंभीर सवाल खड़े करती हैं। ऐसी ही एक घटना 8 अक्टूबर 2001 को बांग्लादेश के सिराजगंज में घटी, जिसमें एक हिंदू परिवार ने न केवल अपमान और उत्पीड़न का सामना किया, बल्कि उन्होंने अपनी बेटियों के खिलाफ एक अत्यंत क्रूर और अमानवीय हिंसा देखी। यह घटना आज भी हमारे समाज को जागरूक करने के लिए एक कड़ा संदेश देती है।

घटना का वर्णन: अनिल चंद्र, एक हिंदू व्यक्ति, अपनी अपनी दो बेटियों, (14) और (6) साल की छोटी बेटी के साथ सिराजगंज में रहते थे। उनके पास पर्याप्त ज़मीन और संसाधन थे, लेकिन उनका एक ही अपराध था – वे हिंदू थे। बांग्लादेश के कुछ उन्मादी तत्वों ने यह सवाल उठाया कि एक "काफिर" (अविश्वासी) के पास इतनी ज़मीन कैसे हो सकती है। इस घृणा का परिणाम इस हिंसक घटना में हुआ।

8 अक्टूबर 2001 को अब्दुल अली, अल्ताफ हुसैन, हुसैन अली, अब्दुर रउफ, यासीन अली, लिटन शेख और अन्य हमलावरों ने अनिल चंद्र के घर पर हमला कर दिया। उन्होंने अनिल को पीटा, उसे रस्सियों से बांध दिया और उसे काफ़िर कहकर अपमानित किया। लेकिन सबसे दर्दनाक और मानवता को शर्मसार करने वाली घटना तब हुई जब उन्होंने उनकी बेटियों पर हमला किया। अपनी बेटी के साथ हो रहे इस जघन्य अत्याचार को देखकर अनिल चंद्र की पत्नी ने शोकपूर्ण शब्दों में कहा, “अब्दुल अली, एक-एक करके करो, नहीं तो वो मर जाएगी, वो सिर्फ 14 साल की है।”

इस ममतामयी माँ की पुकार भी हमलावरों को नहीं रोक सकी और उन्होंने 6 साल की बेटी का भी शिकार किया। इसके बाद हमलावरों ने पड़ोसियों को धमकी दी कि वे इस परिवार की मदद न करें और जाते समय उनके भविष्य के लिए डर और अपमान छोड़ गए।

घटना पर प्रकाश: 
8 अक्टूबर 2001 यह घटना बांग्लादेशी लेखिका तस्लीमा नसरीन ने अपनी किताब "लज्जा" में दर्ज की, जो हिंदू अल्पसंख्यकों पर हो रहे अत्याचारों की सच्चाई को सामने लाती है। इस किताब के प्रकाशन के बाद तस्लीमा को बांग्लादेश छोड़ने पर मजबूर होना पड़ा। इस घृणित घटना के बावजूद, भारत में इस पर गहरी चुप्पी रही, और किसी मीडिया हाउस ने इसके खिलाफ आवाज़ नहीं उठाई।

धार्मिक उत्पीड़न का व्यापक प्रभाव: बांग्लादेश में हिंदू जनसंख्या 22% से घटकर मात्र 5% हो गई है और पाकिस्तान में यह 15% से घटकर 1% तक पहुंच चुकी है। यह आंकड़े दर्शाते हैं कि धार्मिक अल्पसंख्यकों के लिए इन देशों में जीवन कितना कठिन और असुरक्षित हो चुका है। इन अत्याचारों के बावजूद, हम अक्सर इन्हें नजरअंदाज कर देते हैं या उन देशों में रहने वाले अल्पसंख्यकों के बारे में खुलकर बात नहीं करते।

भारत में कुछ लोग, जैसे पूर्व उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी, जो अपने आपको अल्पसंख्यक मानते हैं, अक्सर यह कहते हैं कि भारत में अल्पसंख्यकों को डर महसूस होता है। लेकिन क्या कभी उन्होंने बांग्लादेश या पाकिस्तान में रहने वाली किसी पूर्णिमा के बारे में सोचा है? क्या उन्होंने वहां की वास्तविकता को देखा है?

जागरूकता की आवश्यकता: यह घटना अकेले एक परिवार की त्रासदी नहीं है, बल्कि यह एक बड़ा संकेत है कि धार्मिक अल्पसंख्यक समुदायों को दुनिया भर में कितने भयावह उत्पीड़न का सामना करना पड़ता है। जब तक हम इन घटनाओं पर बात नहीं करेंगे और इन्हें उजागर नहीं करेंगे, तब तक इन अत्याचारों का अंत नहीं होगा।

तस्लीमा नसरीन की किताब "लज्जा" ने इस मुद्दे को सामने लाने का महत्वपूर्ण काम किया है। हमें उनकी तरह उन आवाजों को सुनना होगा जो हिंसा और उत्पीड़न के खिलाफ खड़ी हैं। अगर हम इन अत्याचारों के खिलाफ नहीं बोलेंगे, तो आने वाली पीढ़ियाँ भी इन दुखद घटनाओं से अंजान रहेंगी।

यह समय है कि हम इस प्रकार के उत्पीड़न के खिलाफ आवाज उठाएं। अगर हम सचमुच एक बेहतर और समतामूलक समाज चाहते हैं, तो हमें इन मुद्दों को अनदेखा नहीं करना चाहिए। तस्लीमा नसरीन की किताब और अनिल चंद्र परिवार की त्रासदी जैसी घटनाएँ यह साबित करती हैं कि धर्म और जाति के आधार पर किसी को भी हिंसा और उत्पीड़न का सामना नहीं करना चाहिए।

हमारा कर्तव्य है कि हम उन लोगों की मदद करें जो दुनिया के किसी भी हिस्से में अपनी पहचान और अस्तित्व को बचाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। यह आवश्यक है कि हम एकजुट होकर धार्मिक सहिष्णुता, मानवाधिकार और समानता की दिशा में कदम बढ़ाएं, ताकि कोई भी व्यक्ति अपनी पहचान के कारण अपमान और अत्याचार का शिकार न हो।

अंततः, यह सभी की जिम्मेदारी है कि हम दुनिया में समानता, शांति और न्याय सुनिश्चित करने के लिए संघर्ष करें, चाहे वह बांग्लादेश हो, पाकिस्तान हो या भारत।



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