म्यांमार, एक ऐसा देश जिसे अपने संघर्षों और राजनीति के कारण जाना जाता है, एक महत्वपूर्ण और अक्सर अनदेखी समुदाय का घर है: बिहार के हिंदू। म्यांमार के यांगून शहर में स्थित एक क्षेत्र, जिसे प्यार से "लिटिल इंडिया" कहा जाता है, में 2 लाख बिहारियों की एक गहरी पहचान जुड़ी हुई है। यह क्षेत्र, जो पहले एक समृद्ध भारतीय समुदाय का केंद्र था, म्यांमार की सांस्कृतिक और सामाजिक धारा का एक अहम हिस्सा था। लेकिन इस समुदाय की कहानी, जो प्रवासन, उपनिवेशीकरण और गृह युद्ध से जुड़ी है, एक ऐसी अनकही कहानी है जिसे शायद ही कभी उजागर किया गया है।
बिहारियों का म्यांमार में आगमन
बिहार के हिंदुओं का म्यांमार में आगमन 19वीं सदी के ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के दौरान हुआ। ब्रिटिश शासन के तहत, म्यांमार को बृहत उपनिवेशी नेटवर्क में शामिल किया गया था, और यहाँ रेलवे, बागवानी और अन्य उद्योगों में काम करने के लिए भारतीय मजदूरों की आवश्यकता थी। इसके परिणामस्वरूप, बिहार, उत्तर प्रदेश और तमिलनाडु के मजदूरों को म्यांमार में लाया गया।
इन भारतीय प्रवासियों ने धीरे-धीरे म्यांमार में अपनी जड़ें जमा लीं। बिहार के हिंदू व्यापारियों ने म्यांमार में कारोबार स्थापित किया, और यांगून के कुछ इलाकों में भारतीय संस्कृति को पल्लवित किया। यहीं पर "लिटिल इंडिया" का जन्म हुआ, जहां हिंदू मंदिर, भारतीय व्यंजन, और सांस्कृतिक आयोजन क्षेत्र के पहचान बन गए।
लिटिल इंडिया का विकास
समय के साथ, बिहार के हिंदू म्यांमार में एक महत्वपूर्ण सामाजिक और आर्थिक समुदाय के रूप में विकसित हुए। उनके द्वारा स्थापित व्यापारिक प्रतिष्ठान और धार्मिक स्थलों ने यांगून को भारतीय संस्कृति का एक प्रमुख केंद्र बना दिया। उन्होंने म्यांमार की आर्थिक और सामाजिक धारा में योगदान दिया, लेकिन उन्होंने भारतीय परंपराओं और रीति-रिवाजों को भी कायम रखा। इसके साथ ही, म्यांमार के समाज में उनका गहरा प्रभाव पड़ा और "लिटिल इंडिया" एक सांस्कृतिक हॉटस्पॉट बन गया।
म्यांमार के राजनीतिक संघर्ष और उसका प्रभाव
1960 के दशक में जब म्यांमार में सैन्य शासन की शुरुआत हुई, तो भारतीय समुदाय, खासकर बिहार के हिंदू, एक मुश्किल स्थिति में आ गए। सैन्य शासन के तहत, म्यांमार में अलगाववाद और जातीय संघर्षों का दौर शुरू हुआ। इसके चलते, भारतीय समुदायों के खिलाफ असहमति और घृणा बढ़ने लगी। उन्हें विदेशी के रूप में देखा जाने लगा, और उन्हें अत्यधिक भेदभाव और हिंसा का सामना करना पड़ा।
1980 और 1990 के दशक में जब म्यांमार में अस्थिरता बढ़ी, तो कई भारतीय परिवारों ने अपने देश लौटने का निर्णय लिया। यह उन लोगों के लिए कठिन समय था, जिनकी जड़ें म्यांमार में गहरी थीं। कई परिवारों ने म्यांमार छोड़कर भारत में शरण ली, जबकि कुछ परिवारों ने इस संकट के बावजूद म्यांमार में रहना जारी रखा।
बिहारियों का विस्थापन और उनका योगदान
म्यांमार के राजनीतिक संकट और गृह युद्ध के कारण, बड़ी संख्या में बिहार के हिंदू म्यांमार से बाहर चले गए। इन प्रवासियों ने भारत में पुनः बसने के बाद अपनी संस्कृति और पहचान को संरक्षित रखा। हालांकि, म्यांमार में जिन परिवारों ने रहने का निर्णय लिया, उन्होंने अपनी परंपराओं को जीवित रखा और भारतीय सभ्यता के अपने हिस्से के रूप में अपनी पहचान को बनाए रखा।
आज का दृश्य
आज, म्यांमार में बिहार के हिंदू समुदाय, जो कभी इस देश का एक अभिन्न हिस्सा थे, अब विश्वभर में फैले हुए हैं। यद्यपि “लिटिल इंडिया” अब पहले जैसी चमकदार नहीं है, फिर भी यांगून में कुछ मंदिर और सांस्कृतिक स्थल इसके गौरवपूर्ण अतीत के गवाह बने हुए हैं। बिहार के हिंदू, जो कभी म्यांमार के व्यापारिक और सांस्कृतिक जीवन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा थे, अब भी अपनी जड़ों और संस्कृति से जुड़े हुए हैं।
निष्कर्ष
बिहार के हिंदुओं की म्यांमार में यात्रा, उनके संघर्ष और "लिटिल इंडिया" के दिनों की कहानी एक गहरी और प्रेरणादायक कहानी है। यह कहानी न केवल प्रवासन, बल्कि संस्कृति, समुदाय और पहचान की भी है। म्यांमार में चल रही राजनीतिक अस्थिरता और गृह युद्ध के बावजूद, बिहार के हिंदुओं की यह अनकही कहानी हमें यह याद दिलाती है कि उनकी सांस्कृतिक धरोहर और संघर्षों ने म्यांमार के इतिहास में एक महत्वपूर्ण स्थान हासिल किया है।
यह कहानी न केवल म्यांमार और भारत के रिश्तों को दर्शाती है, बल्कि यह भी बताती है कि कैसे कठिन समय और भेदभाव के बावजूद एक समुदाय अपनी पहचान को बनाए रखता है और आगे बढ़ता है।

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