2013 में जब अरविंद केजरीवाल ने भारतीय राजनीति में कदम रखा, तो उन्होंने लोगों से कई बड़े वादे किए थे। उनका मुख्य उद्देश्य भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई और राजनीति में बदलाव लाना था। उनका एक प्रमुख वादा था कि वह सत्ता के लालच से परे रहकर केवल सेवा कार्य करेंगे और किसी भी प्रकार के निजी लाभ से दूर रहेंगे। लेकिन आज, उनके कार्यों पर नजर डालते हुए ये सवाल उठता है कि क्या वह अपने वादों पर खरे उतरे हैं या फिर सत्ता के रंग में रंग गए हैं?
2013 का अफिडेविट और इसके प्रमुख वादे
7 जून 2013 को अरविंद केजरीवाल ने एक अफिडेविट जारी किया था, जिसमें उन्होंने कुछ महत्वपूर्ण वादे किए थे। यह वादा न केवल उनकी ईमानदारी का प्रतीक था, बल्कि उनके नेतृत्व की पहचान भी बन गया था। इस अफिडेविट में निम्नलिखित प्रमुख वादे थे:
बड़ा घर नहीं लूंगा: केजरीवाल ने कहा था कि वे किसी भी कीमत पर बड़ा या आलीशान घर नहीं लेंगे, क्योंकि उनका उद्देश्य केवल सेवा करना है, न कि व्यक्तिगत सुख-सुविधाओं में बढ़ोतरी करना।
गाड़ी नहीं लूंगा: उन्होंने वादा किया था कि वह किसी भी प्रकार की सरकारी गाड़ी का इस्तेमाल नहीं करेंगे, न ही अपने लिए किसी प्रकार की विशेष गाड़ी का इंतजाम करेंगे। उनका कहना था कि वह आम आदमी की तरह रहेंगे और उनके पास किसी विशेष ऐशोआराम की चीज़ें नहीं होंगी।
सुरक्षा नहीं लूंगा: अरविंद केजरीवाल ने यह भी कहा था कि वे किसी भी प्रकार की सरकारी सुरक्षा नहीं लेंगे। उनका मानना था कि यदि आम नागरिक बिना सुरक्षा के जीवन जी सकता है, तो वह भी बिना सुरक्षा के काम कर सकते हैं। उन्होंने इसे भ्रष्टाचार और सत्ता के प्रतीक के रूप में देखा था।
जन लोकपाल बिल: एक और बड़ा वादा था जन लोकपाल बिल को लागू करने का। यह बिल भ्रष्टाचार के खिलाफ एक सख्त कानून बनाता, जो सरकारी अधिकारियों और नेताओं को जवाबदेह बनाए रखने के लिए आवश्यक था।
इन वादों ने अरविंद केजरीवाल को एक ईमानदार और जनता के प्रति समर्पित नेता के रूप में प्रस्तुत किया। उनकी छवि एक ‘सच्चे नेता’ की बन गई थी, जो केवल जनता की भलाई के लिए काम करना चाहते थे।
आज की हकीकत: क्या वादे पूरे हुए?
अब लगभग एक दशक बाद, केजरीवाल के इन वादों का मूल्यांकन करते हैं तो यह स्पष्ट होता है कि कुछ वादे अपनी वास्तविकता से काफी दूर चले गए हैं।
बड़ा घर और गाड़ी: 2013 में केजरीवाल ने बड़े घर और गाड़ी से दूर रहने का वादा किया था। लेकिन आज उनके पास दिल्ली में एक आलीशान बंगला है, जो राज्य के मुख्यमंत्रियों के लिए निर्धारित है। इसके अलावा, उनके पास अब सरकारी सुरक्षा है और वह प्रोटोकॉल के तहत चलते हैं, जिससे यह साफ है कि उन्होंने अपनी पहली बात से मुंह मोड़ लिया है। इसके साथ ही, उनकी गाड़ी भी एक सरकारी गाड़ी है, जिसे वह लगातार इस्तेमाल करते हैं।
सुरक्षा: पहले केजरीवाल ने वादा किया था कि वह किसी भी प्रकार की सुरक्षा नहीं लेंगे, लेकिन अब उन्हें और उनकी पार्टी के नेताओं को राज्य द्वारा सुरक्षा दी जा रही है। यह एक बड़ा बदलाव है जो उनके पहले के वादे के खिलाफ जाता है।
जन लोकपाल बिल: अरविंद केजरीवाल का सबसे बड़ा वादा था जन लोकपाल बिल। यह बिल उनके द्वारा 2013 में किया गया एक प्रमुख वादा था, लेकिन हकीकत में यह बिल दिल्ली में लागू नहीं हो सका। यह सवाल उठता है कि क्यों यह कानून अभी तक लागू नहीं हो पाया, जबकि केजरीवाल ने इसे अपनी प्राथमिकता बताया था।
राजनीति में बदलाव और आलोचना
केजरीवाल के इन वादों के बावजूद, उनकी सरकार पर आलोचनाएं बढ़ने लगीं हैं। उनके आलोचकों का कहना है कि उन्होंने अपनी छवि और वादों को खो दिया है। उनके द्वारा किए गए वादे अब महज राजनीति के औजार प्रतीत होते हैं। उनकी सरकार के फैसलों और कार्यों ने उनके पहले के ईमानदार और भ्रष्टाचार विरोधी दृष्टिकोण को धुंधला कर दिया है।
कुछ प्रमुख मुद्दे हैं जिन पर लोगों की नाराजगी है:
भ्रष्टाचार: जहां केजरीवाल ने भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई का ऐलान किया था, वहीं उनकी सरकार पर भी भ्रष्टाचार के आरोप लगाए गए हैं। कई बार उनके मंत्री और पार्टी के नेता भ्रष्टाचार के मामलों में घिरते रहे हैं, जिससे यह सवाल उठता है कि क्या उनके नेता भी उन मुद्दों पर ध्यान दे रहे हैं जिनके खिलाफ उन्होंने संघर्ष किया था।
विकास कार्य और प्रशासन: उनके द्वारा दिल्ली में किए गए कई विकास कार्यों और योजनाओं की आलोचना की जाती रही है, जैसे कि शिक्षा और स्वास्थ्य क्षेत्र में सुधार। कुछ क्षेत्रों में सुधार जरूर हुआ है, लेकिन बहुत से लोग मानते हैं कि उनके वादे सही तरीके से पूरे नहीं हो पाए हैं।
सत्ता का दुरुपयोग: आलोचक यह आरोप भी लगाते हैं कि केजरीवाल ने सत्ता का दुरुपयोग किया है और वही सत्ता के खिलाफ जो उन्होंने पहले लड़ाई लड़ी थी, उसी में शामिल हो गए हैं।
वर्तमान में अरविंद केजरीवाल की छवि एक ऐसे नेता की बन चुकी है जो अपने वादों से मुंह मोड़ चुका है। जनता का गुस्सा और निराशा साफ दिख रही है। वे शायद अब दिल्ली के भविष्य के लिए एक नए नेता की तलाश में हैं, जो वाकई उनके वादों को निभा सके और भ्रष्टाचार के खिलाफ ठोस कदम उठा सके।
जनता को अब यह सवाल करने का अधिकार है कि क्या केजरीवाल वही नेता हैं जिन्होंने 2013 में शपथ ली थी? या फिर उनकी राजनीति एक नए ‘भ्रष्टाचार का शीशमहल’ का हिस्सा बन चुकी है?
क्या केजरीवाल अब भी उसी 'आम आदमी' के नेता हैं, जिसे उन्होंने 2013 में प्रस्तुत किया था?
यह सवाल दिल्ली की राजनीति और उनकी छवि के भविष्य का निर्धारण करेगा।
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