भारत में न्यायपालिका का प्रमुख उद्देश्य निष्पक्ष और स्वतंत्र न्याय प्रदान करना है, जिससे नागरिकों के अधिकारों की रक्षा हो सके। हालांकि, हाल के घटनाक्रमों ने यह सवाल उठाया है कि क्या हमारी न्यायिक प्रणाली में पारदर्शिता और जवाबदेही की कमी है, विशेषकर वकीलों की फीस और NGOs की भूमिका से संबंधित। इस संदर्भ में, कासगंज हत्याकांड के मामले में एनआईए कोर्ट के विशेष न्यायाधीश विवेकानंद शरण त्रिपाठी द्वारा दिए गए आदेश ने एक नया और संवेदनशील विषय उठाया है – वकीलों और NGOs के बीच पैसे का मायाजाल।
26 जनवरी 2018 को कासगंज में हुई चंदन गुप्ता की हत्या ने पूरे देश को झकझोर दिया था। इस घटना के बाद कई लोग इसे धार्मिक उन्माद का परिणाम मानते थे, क्योंकि यह घटना उस समय हुई जब चंदन गुप्ता एक तिरंगा यात्रा में शामिल हो रहे थे। इस मामले में कुल 28 आरोपी थे, जिनमें से 26 को दोषी ठहराया गया और उन्हें आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई। हालांकि, 2 आरोपियों को संदेह का लाभ देते हुए बरी कर दिया गया।
इस फैसले के साथ, जज त्रिपाठी ने वकीलों और NGOs के फंडिंग नेटवर्क पर गंभीर सवाल उठाए हैं। उनका कहना था कि कई विदेशी और देशी NGOs आतंकवादियों और अपराधियों की पैरवी करते हैं, और यह देश के लिए चिंता का विषय है। खासकर, जब इन NGOs की फंडिंग के स्रोत की जांच नहीं की जाती, तो यह राष्ट्रविरोधी गतिविधियों को बढ़ावा देने का एक बड़ा कारण बन सकता है।
NGOs की भूमिका और फंडिंग की जांच की आवश्यकता
जज त्रिपाठी ने विशेष रूप से उन NGOs की भूमिका पर सवाल उठाया जो आतंकवादियों और राष्ट्रविरोधी तत्वों के मामलों में कानूनी सहायता प्रदान करते हैं। उन्होंने अपने आदेश में 7 NGOs का उल्लेख किया, जिनके बारे में आरोप है कि ये संगठनों ने भारतीय न्याय व्यवस्था को कमजोर करने की कोशिश की है। इन NGOs की फंडिंग का स्रोत भी स्पष्ट नहीं है, और यह सवाल उठता है कि क्या ये विदेशी फंडिंग के जरिए आतंकवादियों और अन्य अपराधियों का समर्थन कर रहे हैं।
जज त्रिपाठी के आदेश में इन NGOs की गतिविधियों और उनकी फंडिंग के स्रोतों की जांच करने का निर्देश दिया गया है। खासकर जब कोई आतंकी पकड़ा जाता है, तो ये NGOs उसके बचाव में खड़े हो जाते हैं और उनकी पैरवी करते हैं, जिससे उनका वित्तीय नेटवर्क और उद्देश्य संदिग्ध बन जाता है।
नीचे उन NGOs का विवरण दिया गया है, जिनका नाम जज त्रिपाठी के आदेश में लिया गया है:
- सिटीजन्स ऑफ जस्टिस एंड पीस, मुंबई
- पीपल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज, दिल्ली
- रिहाई मंच
- अलायन्स फॉर जस्टिस एंड एकाउंटेबिलिटी, न्यूयॉर्क
- इंडियन अमेरिकन मुस्लिम काउंसिल, वाशिंगटन डीसी
- साउथ एशिया सॉलिडेरिटी ग्रुप, लंदन
- जमीयत उलेमा हिंद का लीगल सेल
इन संगठनों की जांच से यह स्पष्ट हो सकता है कि क्या उनका उद्देश्य किसी आतंकवादी समूह या अन्य आपराधिक तत्वों का समर्थन करना है।
वकीलों की फीस और वित्तीय पारदर्शिता की आवश्यकता
जज त्रिपाठी के आदेश के एक अन्य महत्वपूर्ण पहलू ने वकीलों की फीस और उनकी वित्तीय पारदर्शिता पर भी सवाल उठाए हैं। उनका कहना है कि उच्च न्यायालयों और सुप्रीम कोर्ट में प्रैक्टिस करने वाले वकीलों की फीस का विवरण सार्वजनिक होना चाहिए। यह सार्वजनिक जानकारी यह सुनिश्चित करेगी कि वकील किसी बाहरी दबाव के तहत काम नहीं कर रहे हैं और उनकी फीस में कोई अनुचित लाभ या भ्रष्टाचार नहीं है।
इसके अतिरिक्त, जज त्रिपाठी ने यह भी प्रस्तावित किया कि वकीलों की संपत्ति और आयकर रिटर्न का विवरण भी सार्वजनिक किया जाए, ताकि यह स्पष्ट हो सके कि उन्होंने कितनी आय अर्जित की है और क्या उनके पास अवैध संपत्ति है। वकीलों के पेशेवर तौर पर पारदर्शी रहना न्यायिक प्रक्रिया में विश्वास बनाए रखने के लिए अत्यंत आवश्यक है।
रोहिंग्या मामले में वकीलों का विवादित रुख
जज त्रिपाठी के आदेश में एक और महत्वपूर्ण बिंदु सामने आता है – रोहिंग्या शरणार्थियों के मुद्दे पर उच्च न्यायालय और सुप्रीम कोर्ट में जिन वकीलों ने पैरवी की, उनके बारे में सवाल उठाए गए हैं। उदाहरण के लिए, रोहिंग्या मुसलमानों के मामले में जिन वकीलों ने इन शरणार्थियों की पैरवी की, उनमें प्रमुख नाम थे:
- डॉ. राजीव धवन
- प्रशांत भूषण
- डॉ. अश्विनी कुमार
- कोलिन गोंसाल्वेस
- फाली नरीमन (अब स्व. हो गए)
- कपिल सिब्बल
ये वकील ऐसे मामलों में जमानत या राहत दिलाने के लिए सक्रिय रहे हैं, जहां राष्ट्रीय सुरक्षा और कानून व्यवस्था पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है। इस प्रकार के मामलों में यह भी जांच होनी चाहिए कि इन वकीलों को किन स्रोतों से वित्तीय सहायता मिल रही है और क्या उनका काम राष्ट्रविरोधी ताकतों के हित में तो नहीं हो रहा।
न्यायिक सुधार और पारदर्शिता की आवश्यकता
भारतीय न्यायपालिका की स्वतंत्रता और निष्पक्षता बनाए रखने के लिए आवश्यक है कि वकीलों और NGOs की गतिविधियों की पारदर्शिता सुनिश्चित की जाए। जज त्रिपाठी ने इस दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम उठाया है, और यह एक मिसाल पेश करता है कि कैसे न्यायपालिका अपने आदेशों के माध्यम से राष्ट्रविरोधी गतिविधियों के खिलाफ कार्यवाही कर सकती है।

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